मथुरा । श्रावण पूर्णिमा को श्रवण नक्षत्र में ब्राह्मणों विशेष रूप से धर्माचार्यों, पांडित्यजनों, वेदपाठी विद्वतजनों, द्वारा पुरातन काल से चली आ रही वैदिक काल की परंपरा का निर्वहन श्रावणी उपाकर्म संस्कार कहलाता है. इस संस्कार का प्रमुख उद्देश्य वर्षभर में ज्ञात व अज्ञात कारणों से हुयी त्रुटि का प्रायश्चित, आत्मशुद्धि कर सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करना है।
श्रावणी के 3 अंग हैं. प्रायश्चित, संस्कार व स्वाध्याय। यह संस्कार किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से किया जा सकता है. हेमाद्रि स्नान किया जाता है, वाह्य व अंत:करण की शुद्धि के लिए पंचगव्य ( गौदुग्ध, गौदधि, गौघृत, गौमूत्र, गाय का गोबर) से स्नान व पान किया जाता है. इसके अलावा नदी की रज, भस्म, अपामार्ग, कुशा, अकऊआ आदि से वैदिक विधि से मंत्रोच्चारण के मध्य वाह्य शुद्धि के लिए स्नान किया जाता है. इस प्रक्रिया में देव तर्पण, ऋषि तर्पण, सप्ततृषि पूजन, सूर्योपासना व वेदमाता गायत्री का पूजन का विधान है. वर्षभर धारण करने वाले यज्ञोपवीतों (जनेऊ) का पूजन व अभिमंत्रित किया जाता है. श्रावणी उपाकर्म को श्रवण नक्षत्र में करने का विधान है. यजुर्वेदी ब्राह्मण श्रावण पूर्णिमा को करते हैं लेकिन ऋग्वेदी व अग्निहोत्र ब्राह्मण श्रावण की नागपंचमी को यदि हस्त नक्षत्र हो तो श्रावणी कर लेते हैं।
यदि नागपंचमी को हस्त नक्षत्र न हो तो वह भी पूर्णिमा को करते हैं. भद्रा में श्रावणी उपाकर्म नहीं किया जाता. प्राचीन काल में परंपरा थी कि पुरोहित, कुलगुरु व आचार्य श्रावणी करने के बाद अपने शिष्यों व यजमानों की रक्षा व समृद्धि के लिए अभिमंत्रित रक्षासूत्र बाँधते थे लेकिन वर्तमान में यह परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है. श्रावण पूर्णिमा को वेदमाता गायत्री जयंती व संस्कृत दिवस भी होता है. — पंडित अमित भारद्वाज