तालिबानियों के पुरखों ने मथुरा के लोगों पर ढहाए थे जुल्म..

बृज दर्शन

चंद्र प्रताप सिंह सिकरवार

मथुरा। अफगानिस्तान की सत्ता पर काविज हो चुके क्रूर तालिवानियों के पुरखों ने ही 263 साल पहले ब्रज में जुल्म ढहाए थे। मथुरा में लोगों के सिर कलम कर 14 फुट ऊंचा चट्टा बना दिया था। मंदिर तोडे थे। दुराचार व लूटपाट की थी। हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम भी बनाया था। उन्हे भगाने के लिए भरतपुर के राजा की जाट सेना को आना पडा था। क्रूरता की पराकाष्ठा की ये सब बातें इतिहास की किताबों में आप पढ़ सकते हो।
23 जनवरी, 1757 को अफगानिस्तान के क्रूर शासक अहमद शाह अब्दाली ने अपने चौथे प्रयास में दिल्ली पहुंच कर कब्जा कर लिया था। दिल्ली लूट के बाद उसका लालच बढ़ गया। उसने सबसे पहले दिल्ली से सटी जाटों की बल्लभगढ़ रियासत पर हमला किया। इसके बाद उसने दो सरदारों के नेतृत्व में 20 हजार पठान सैनिकों को मथुरा को लूटने के लिए भेजा। उस क्रूर शासक ने अपने सैनिकों को स्पष्ट आदेश दिया था- “मेरे जांबाज बहादुरो! मथुरा नगर हिन्दुओं का पवित्र स्थान है। उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दो। एक भी मंदिर खड़ा न दिखाई पड़े। जहां-कहीं पहुंचो, कत्ले आम करो और लूटो। लूट में जिसको जो मिलेगा, वह उसी का होगा। सभी सिपाही काफिरों के सिर काट कर लायें और प्रधान सरदार के खेमे के सामने डालते जाएं। जो मुस्लिम धर्म अपनाए, उसे बख्श दो। सरकारी खजाने से प्रत्येक सिर के लिए पांच रुपया इनाम दिया जायगा”।
बल्लभगढ के बाद पठान सैनिक मथुरा की ओर चले थे। मथुरा से पहले चौमुहां पर जाटों की छोटी सी सेना के साथ उनकी लड़ाई हुई। इसके उपरांत अफगान के पठान सैनिकों ने मथुरा में प्रवेश किया। उनके पहले निशाने पर पंडा-पुजारियों खासकर चतुर्वेदी समाज के परिवार थे।
मथुरा में सबसे पहले भरतपुर दरवाजा और महोली की पौर पर कत्ले आम हुआ। यहां क्रूरता की हदे पार हो गयीं।
उस वक्त लोगों को घरों से खींच कर उनके सिर कलम किए गये। बहुत सी महिलाओं ने अपनी इज्जत बचाने की खातिर यमुना में छलांग लगा कर जान दे दी थी।
इतिहासकार लिखते हैं कि चतुर्वेदी समाज के हजारों स्वाभिमानी परिवारों ने मुस्लिम धर्म अपनाने से इंकार कर पलायन करना बेहतर समझा। वह दिल्ली की ओर जाने के बजाए यमुना किनारे होते हुए बाह, फीरोजाबाद, इटावा व मैनपुरी के आसपास पहुंचे और वहीं पर बस गए। मथुरा से बाहर इन स्थानों पर आज चतुर्वेदी समाज के जो लोग (मीठे चौबे) रहते हैं, वे मूलत: मथुरा के ही परिवार हैं।
उस क्रूर नरसंहार के बारे में इतिहासकार श्री सी एस वर्मा रिटायर्ड आईएएस बताते हैं कि अफगानिसान से आये क्रूर पठान सैनिकों ने 22 फरवरी 1757 को हिंदुओं के सिर कलम कर दरेसी पर 14 फुट ऊंचा चट्टा लगा दिया था। बाद में उन सिरों को नरहौली गांव के पास ले जाकर उनकी होली जलायी गयी थी। नरों की होली जलाने से ही इस स्थान का नाम नरहोली पड़ा है। ढाई सौ साल पहले जहां होली जलायी, उस स्थान पर ही आज हाइवे थाना है।
इतिहासकार लिखते हैं कि दरेसी पर सभी हिंदू रहते थे लेकिन क्रूर पठानों ने उन्हें सामूहिक रूप से मुस्लिम बना दिया अन्यथा सभी सिर काट लिए जाते। आज दरेसी पर जो मुस्लिम हैं। उनके पुरखों ने मजबूरी में ये धर्म अपनाया था।
इतिहासकारों ने लिखा है कि भरतपुर के महाराजा सूरजमल की जाट सेना कत्ले आम की सूचना मिलने के दो दिन बाद मथुरा आयी थी। उस सेना से भी अफगानी पठानों की जमकर लड़ाई हुई। इसके बाद अफगानी हमलावर मथुरा से हट कर वृंदावन व गोकुल की ओर भागे।
गोकुल में भी नागा साधुओं से जर्बदस्त लड़ाई हुई थी। नागा साधुओं से युद्ध के दौरान अब्दाली की फौज में हैजा फैल गया, जिससे विदेशी सैनिक मरने लगे। अब्दाली किसी अज्ञात दैवीय प्रकोप की दहशत के कारण वापस लौटने लगा था। गोकुल-महावन से वापसी में उस सेना ने फिर से वृन्दावन में लूटपाट की। मथुरा-वृन्दावन की लूट में ही अब्दाली की सेना को लगभग 12 करोड़ रुपये की धनराशि प्राप्त हुई थी, जिसे वह तीस हजार घोड़ो, खच्चरों और ऊंटों पर लाद कर अफगान ले गया था।
मथुरा, वृंदावन व गोकुल के बाद पठान सैनिकों की एक टुकड़ी ने आगरा पहुंच कर जबर्दस्त लूटपाट और मारकाट की थी। यहां भी उसकी सेना में दोबारा हैजा फैल गया। आगरा से भी लूट की बड़ी धन-दौलत हाथ लगी। मथुरा व आगरा से अकूत दौलत समेट कर वे क्रूर सैनिक ले गये। साथ ही अविवाहित व विधवा महिलाओं को भी अपने देश अफगानिस्तान ले गये थे। इति ….

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