-इतिहास के मुहानों पर रह जायेंगे बगीची और आखाड़ों
-कहीं पर सोच बदली तो कहीं अवैध कब्जों के गर्त में समागये अखाड़े
-सरकार ध्यान दे : दिनेश खारदार ने उठाया बगीची और अखाड़ों के अस्तित्व का मुद्द
संजय दीक्षित
हाथरस। एक जमाना था जब बगीचियों का वर्चस्व था। ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थियों के लिए तो यह वरदान थे, लेकिन अब यह भी किस्से और कहानियों की शोभायें बनने जा रहे हैं। आधुनिकता की चमक-दमक और जिम की जंग ने बगीचियों को बगल (अंतिम दौर में) ला दिया है।
आइये जानें, क्या थी बगीचियां
भारतीय इतिहास के अर्स पर मौजूद रहीं बगीचियां आज फर्स की पटकथा का कण बनने जा रही हैं। एक जमाना था जब भारत की सुबह बगीचियों पर होती थी। भारतीय बगीचियां स्वास्थ्य शरीर का एक अहम साधन थी। व्यायाम स्थल को भी बगीचियों का परियावाची कह सकते हैं। जहां युवा (25 वर्ष तक) ब्रह्मचर्य को साधने के लिए पहुंचते थे तो वयस्क (26-50 वर्ष) जिसे हम गृहस्थ आश्रम कह सकते है, स्वास्थ्य की साधना को, पौढ़ (51-75 जिन्हें हम वानप्रस्थ भी कह सकते है) वेद-वेदांत के साथ सन्यास साधने के लिए बतौर अभ्यास को पहुंचते थे। दरअसल यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय आश्रम व्यवस्था तीन आश्रमों के लिए बगीचियां जीवन में बहुत ही प्रमुख स्थान रखती थी। आइये चलते-चलते थोड़ा सा प्रकाश भरतीय आश्रम व्यवस्था पर भी डाल लेते हैं। भारतीय परिवेश में आश्रमों को चार भागों में विभाजित किया है ब्रह्मचर्य आश्रम (0 से 25 वर्ष तक), गृहस्थ आश्रम (26 से 50 वर्ष तक) वानप्रस्थ आश्रम (51 से 75 वर्ष तक) सन्यास आश्रम (76 से जीवन पर्यंत तक)
अवैध कब्जों का भी शिकार हुई बगीचियां
बढ़ती महंगाई, जनसंख्या और बदलती सोच भी बगीचियों के पराभव (समाप्ति की ओर) का कारण बनी हैं। अवैध कब्जाधारियों ने सामाजिक तौर पर बनी बहुत सी बगीचियों पर अवैध कब्जा कर विलडिंगें बना दीं। ट्रस्ट की तमाम बगीचियों को खुद उनके उत्तराधिकारियों ने ही खुर्द-बुर्द कर दिया। कुछेक बची भी हैं तो वह मुकदमेबाजी का शिकार हो गई है।
अब नाम के रह गये हैं अखाड़ा संचालक : खारदार
ऐतिहासिक मंदिर श्री दाऊजी महाराज पर रहे अखाड़े के संचालक दिनेश खारदार एमए का कहना है कि अब तो नाम के लिए अखाड़ा और अखाड़ा संचालक रह गये हैं। उन्होंने बताया नगर में कभी नामचीन आखाड़ों में अटलटाल, डल्लागढ़, तकिया, भोलागढ़, विप्र अखाड़ा आदि दर्जनों अखाड़े (बगीचियां) थे, लेकिन ज्यादातर तो अपने अस्तित्व को धूमित कर चुके हैं तो कुछ अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं तथा कुछ अखाड़ प्राकृतिक आपदा के दखल में खो गये। उन्होंने बताया कि दाऊ जी अखाड़ा भी आज से करीब डेढ दशक पहले भूस्खलन का शिकार हो चुका है। बरिश और मिट्टी खनन के चलते भी भूस्खलित हुआ है।
जिम के प्रचलन ने भी बगीचियों का पराभव हुआ है
दिनेश खारदार कहते हैं कि बदलती सोच के चलते बढ़े जिमों के प्रचन से भी बगीची-अखाड़ों के अस्तित्व पर बुरा प्रभाव पड़ा है। युवा पहलवान भी अब बगीचियों के स्थान पर जिमों में जाना पसंद करते हैं। उन्होंने सरकार से बगीचियों और अखाड़ों के अस्तित्व को बनाय रखने के लिए सार्थक पहल की मांग की है।